“Book Descriptions: इसी बीच प्रधानाध्यापक एकाएक आए और मुझे टोका; ‘‘देखिए; यहाँ पास में कोई खेल नहीं खेला जा सकता। चाहो; तो दूर उस मैदान में चले जाइए। यहाँ दूसरों को तकलीफ होती है।’’ मैं लड़कों को लेकर मैदान में पहुँचा। लड़के तो बे-लगाम घोड़ों की तरह उछल-कूद मचा रहे थे। ‘‘खेल! खेल! हाँ; भैया खेल!’’ मैंने कहा; ‘‘कौन सा खेल खेलोगे?’’ एक बोला; ‘‘खो-खो।’’ दूसरा बोला; ‘‘नहीं; कबड्डी।’’ तीसरा कहने लगा; ‘‘नहीं; शेर और पिंजड़े का खेल।’’ चौथा बोला; ‘‘तो हम नहीं खेलते।’’ पाँचवाँ बोला; ‘‘रहने दो इसे; हम तो खेलेंगे।’’ मैंने लड़कों की ये बिगड़ी आदतें देखीं। मैं बोला; ‘‘देखो भई; हम तो खेलने आए हैं। ‘नहीं’ और ‘हाँ ’ और ‘नहीं खेलते;’ और ‘खेलते हैं;’ करना हो तो चलो; वापस कक्षा में चलें।’’ लड़के बोले; ‘‘नहीं जी; हम तो खेलना चाहते हैं।’’ —इसी पुस्तक से बाल-मनोविज्ञान और शैक्षिक विचारों को कथा शैली में प्रस्तुत करनेवाले अप्रतिम लेखक गिजुभाई के अध्यापकीय जीवन के अनुभव का सार है यह—‘दिवास्वप्न’।” DRIVE